27 atrocities against Dalits every day
11 Dalits beaten every day
3 Dalit women raped every day
A crime against a Dalit every 18 minutes
13 Dalits murdered every week
6 Dalits abducted every week
5 Dalits' homes or possessions burnt every week
Source: National Campaign on Dalit Human Rights
11 Dalits beaten every day
3 Dalit women raped every day
A crime against a Dalit every 18 minutes
13 Dalits murdered every week
6 Dalits abducted every week
5 Dalits' homes or possessions burnt every week
Source: National Campaign on Dalit Human Rights
Open Space organised a Poetry Recitation on the Dalit Movement, titled ज़मीनें गुनगुनाती हैं, on 28th February, 2009, at the Academy of Mass Communication, Lucknow, at which Dalit as well as non-Dalit poets of both Hindi and Urdu recited their poems. The recitation was presided over by well known Dalit poet Dr. T. P. "Raahi", who teaches in the Department of Hindi, University of Lucknow, while Prof. Sabira Habib compered the programme.
Dalit poetry is a flourishing form in Dalit Literature. The entire universe of Dalit feeling sems to have descended into poetic form. Innumerable aspects of individual as well as social experience reveal themselves. Although it is not possible to write about each individual poem, if one decides to evaluate Dalit poetry in brief, one can say that Dalit poetry is the impassioned voice of the third generation of the Ambedkarite movement. It can be seen standing up against subjugation, humiliation and atrocities; can be heard singing, intoxicated, of the dawn of a new life.
- Arjun Dangale, ed., Poisoned Bread: Translations from Modern Marathi Dalit Literature, Orient Blackswan, 1992, p. xiv
Anwar Nadeem
दलित समाज
सारी दुनिया देख रही है इंसानों का दलित समाज
टूटे-फूटे, बेकल, शोषित अरमानों का दलित समाज।
धरती पर जन्नत उतरेगी, आख़िर कब तक उतरेगी
दुनिया कब से देख रही है इंसानों का दलित समाज।
एक नयी तारीख बनाने निकला है किस तेवर से
दीन-दयालु मर्यादा की संतानों का दलित समाज।
ज़ुल्म-ओ-सितम का सारा जलवा, काली दुनिया का आकार
नुक्ते की ये बात समझ ले बलवानों का दलित समाज।
खींच के धरती पर लायेगा जन्नत की बुनियादों को
दुनिया भर की तहरीकों से अनजानों का दलित समाज। ।
- अनवर नदीम
हर दौर में ज़िंदा रहना है
धरती का मुक़द्दर खोटा है, जन्नत का उतरना मुश्किल है
ये बात समझ में आ जाए, तो साँस का लेना आसां है।
तूफ़ान बदन के अन्दर है, लगता है मिटा के रख देगा
ये दुन्या हम पर हँस्ती है, क्या ख्वाब अछूता देखा है।
बस ख्वाब हमारा अपना है, इस ख्वाब को ज़िंदा रखना है
और ख्वाब इशारा करता है, दुन्या को बदल के रहना है।
मैं ज़ुल्म-ओ-सितम की दुन्या में रहता हूँ, रहूँगा सदियों तक
हाँ मेरी ज़बां कट जायेगी, ये बात मगर लाफानी है।
हर दौर में कुचला जाउंगा, हर दौर में मारा जाउंगा
जब होंट हिलेंगे कानों तक पैगाम यही तो जायेगा।
सच बोल के मरने वालों को हर दौर में ज़िंदा रहना है
हर दौर में ज़िंदा रहना है, सच बोल के मरने वालों को।
- अनवर नदीम
सारी दुनिया देख रही है इंसानों का दलित समाज
टूटे-फूटे, बेकल, शोषित अरमानों का दलित समाज।
धरती पर जन्नत उतरेगी, आख़िर कब तक उतरेगी
दुनिया कब से देख रही है इंसानों का दलित समाज।
एक नयी तारीख बनाने निकला है किस तेवर से
दीन-दयालु मर्यादा की संतानों का दलित समाज।
ज़ुल्म-ओ-सितम का सारा जलवा, काली दुनिया का आकार
नुक्ते की ये बात समझ ले बलवानों का दलित समाज।
आख़िर कब तक साँसे लेगा महरूमी के जंगल में
नंगे-भूके पेट के दम पर मस्तानों का दलित समाज।खींच के धरती पर लायेगा जन्नत की बुनियादों को
दुनिया भर की तहरीकों से अनजानों का दलित समाज। ।
- अनवर नदीम
हर दौर में ज़िंदा रहना है
धरती का मुक़द्दर खोटा है, जन्नत का उतरना मुश्किल है
ये बात समझ में आ जाए, तो साँस का लेना आसां है।
तूफ़ान बदन के अन्दर है, लगता है मिटा के रख देगा
ये दुन्या हम पर हँस्ती है, क्या ख्वाब अछूता देखा है।
बस ख्वाब हमारा अपना है, इस ख्वाब को ज़िंदा रखना है
और ख्वाब इशारा करता है, दुन्या को बदल के रहना है।
मैं ज़ुल्म-ओ-सितम की दुन्या में रहता हूँ, रहूँगा सदियों तक
हाँ मेरी ज़बां कट जायेगी, ये बात मगर लाफानी है।
हर दौर में कुचला जाउंगा, हर दौर में मारा जाउंगा
जब होंट हिलेंगे कानों तक पैगाम यही तो जायेगा।
सच बोल के मरने वालों को हर दौर में ज़िंदा रहना है
हर दौर में ज़िंदा रहना है, सच बोल के मरने वालों को।
- अनवर नदीम
Devki Nandan "Shaant"
दर्द, दर्द है, दर्द को सिर्फ़ दर्द से काम
अश्कों से ही तर मिला, दर्द सवेरे-शाम
वाल्मीखी के ही कहें, या शबरी के राम
कुब्जा के वश में रहे, करुनामय घनश्याम
'शांत' सनातन धर्म हो या पवित्र इस्लाम
दलितों के प्रति कर्म का, बोध रहा निष्काम
- देवकी नंदन 'शांत'
लोग दलितों की बात करते हैं
'शांत' अपनों की बात करते हैं।
मेरी तो साँस साँस गिरवी है
आप बनियों की बात करते हैं।
बादशाहत मिली ग़मों की जिन्हें
उनसे खुशियों की बात करते हैं।
हम हैं मजदूर किसलिए हमसे
सब्ज़-परियों की बात करते हैं।
हम में कुछ खूबियाँ भी हैं लेकिन
आप कमियों की बात करते हैं। ।
- देवकी नंदन 'शांत'
अश्कों से ही तर मिला, दर्द सवेरे-शाम
वाल्मीखी के ही कहें, या शबरी के राम
कुब्जा के वश में रहे, करुनामय घनश्याम
'शांत' सनातन धर्म हो या पवित्र इस्लाम
दलितों के प्रति कर्म का, बोध रहा निष्काम
- देवकी नंदन 'शांत'
लोग दलितों की बात करते हैं
'शांत' अपनों की बात करते हैं।
मेरी तो साँस साँस गिरवी है
आप बनियों की बात करते हैं।
बादशाहत मिली ग़मों की जिन्हें
उनसे खुशियों की बात करते हैं।
हम हैं मजदूर किसलिए हमसे
सब्ज़-परियों की बात करते हैं।
हम में कुछ खूबियाँ भी हैं लेकिन
आप कमियों की बात करते हैं। ।
- देवकी नंदन 'शांत'
Maya Singh
तेरी जैसी मेरी काया, तेरा जैसा मेरा मन
इस धरती पर कौमें दो हैं, यानी वो हैं मर्द-ओ-ज़न
इन कौमों में थोड़ा अन्तर, कोई कहे तो मान भी लूँ
उस अन्तर की गहराई को, मुमकिन है मैं जान भी लूँ
सारी दुन्या देख रही है, औरत का नाज़ुक किरदार
आपस में कुछ भेद न रक्खे नारी-जीवन का संसार
ज़ुल्म-ओ-सितम के घेरे में तू मेरी एक सहेली है
मेरा ये विशवास बता क्यों तेरी एक पहेली है
तेरे दिल को ठेस लगे तो मेरे दिल को चैन कहाँ
और बहुत ही मीठे, रंगीं सपनों वाली रैन कहाँ
मेरे अपने काम बहुत हैं, लेकिन तेरे हित की बात
कामों की इस भीड़ में लगती सारे जीवन की सौगात
तेरे जैसी मेरी काया, तेरा जैसा मेरा मन। ।
- माया सिंह
मैं तुम से ये पूछ रहीं हूँ
किसने बनाया दलित समाज
मेरी चाहत, मेरी इच्छा
एक नए संसार को देखे
जिसमें साँसे लेकर उभरे
सर्व समाज का सुंदर सपना
उंच-नींच की हर उलझन को
काट के निकले प्यार की धारा।
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
मेरे इस विशवास को देखो
ये कहना आसान बहुत है
ये करना मुश्किल भी नहीं
आओ मिल कर सपने देखें
रंग-निराले उनमें भर लें
धरती पर शिक्षा की धुप
फैले इतनी दूर तलक
दलित की कुटिया रौशन हो
राज-महल की हमसर हो
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
शिक्षा के बल-बूते पर
आज नहीं तो कल गिरना है
दूरी की दीवारों को
नफरत की बुनियादों को
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
- माया सिंह
इस धरती पर कौमें दो हैं, यानी वो हैं मर्द-ओ-ज़न
इन कौमों में थोड़ा अन्तर, कोई कहे तो मान भी लूँ
उस अन्तर की गहराई को, मुमकिन है मैं जान भी लूँ
सारी दुन्या देख रही है, औरत का नाज़ुक किरदार
आपस में कुछ भेद न रक्खे नारी-जीवन का संसार
ज़ुल्म-ओ-सितम के घेरे में तू मेरी एक सहेली है
मेरा ये विशवास बता क्यों तेरी एक पहेली है
तेरे दिल को ठेस लगे तो मेरे दिल को चैन कहाँ
और बहुत ही मीठे, रंगीं सपनों वाली रैन कहाँ
मेरे अपने काम बहुत हैं, लेकिन तेरे हित की बात
कामों की इस भीड़ में लगती सारे जीवन की सौगात
तेरे जैसी मेरी काया, तेरा जैसा मेरा मन। ।
- माया सिंह
मैं तुम से ये पूछ रहीं हूँ
किसने बनाया दलित समाज
मेरी चाहत, मेरी इच्छा
एक नए संसार को देखे
जिसमें साँसे लेकर उभरे
सर्व समाज का सुंदर सपना
उंच-नींच की हर उलझन को
काट के निकले प्यार की धारा।
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
मेरे इस विशवास को देखो
ये कहना आसान बहुत है
ये करना मुश्किल भी नहीं
आओ मिल कर सपने देखें
रंग-निराले उनमें भर लें
धरती पर शिक्षा की धुप
फैले इतनी दूर तलक
दलित की कुटिया रौशन हो
राज-महल की हमसर हो
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
शिक्षा के बल-बूते पर
आज नहीं तो कल गिरना है
दूरी की दीवारों को
नफरत की बुनियादों को
मेरी चाहत, मेरी इच्छा।
- माया सिंह
Ram Avtar "Pankaj"
करिए सदगुड बुद्धि से, मानव की पहचान।
तन, धन अथवा जाती से, श्रेष्ठ न हो इंसान। ।
श्रेष्ठ न हो इंसान, सफेदा पादप चिकना।
उपयोगी पर नहीं, आम-शीशम तरु जितना। ।
"पंकज" वर्नाधर, श्रेष्ठता हेतु न धरिये।
मेधावी व्यक्तित्व, चयन सदगुड से करिए।।
निबल हुआ है निबल ही, सबल, सबल संपन्न।
निबल खरीदे, खाए क्या, जो अति दीन विपन्न। ।
जो अति दीन विपन्न, न रोटी भी खा पाटा।
निबल करे श्रम घोर, सबल तो mauj उडाता ।
'पंकज' जग में न्याय , भला क्यों विफल हुआ है।
सबल हो रहा सबल, निबल नित निबल हुआ है। ।
समता भारत वर्ष में, कहाँ सफल सर्वत्र।
दलित-घ्रिडित को जन अभी, बना न पाए मित्र। ।
बना न पाये मित्र, सामने बैठें कैसे।
युग से खटते रहे, दाम बिन चाकर जैसे। ।
'पंकज' जब तक भाव, न सामंती का हटता ।
तब तक कोसों दूर, यहाँ समरसता समता। ।
ऐसी है असमानता, व्याप्त गली घर गाँव।
कोई चलता कार पर, कोई नंगे पाँव। ।
कोई नंगे पाँव, बदन पर वस्त्र न जुटता।
भूखों मरता एक, एक नोटों पर चलता। ।
'पंकज' होती ग्लानी, कि यह समरसता कैसी।
नहीं सोचते लोग, गिरी मानवता ऐसी। ।
छोटा-बड़ा न आदमी, सब हैं एक समान।
धन-दौलत, रंग-रूप का, करो नहीं अभिमान। ।
करो नहीं अभिमान, व्यर्थ का भेद ना करिए।
मिलो सभी से सदा, प्यार सबमें नित भरिये। ।
कह 'पंकज' है जाती, धर्मगत चिंतन खोटा।
हर मानव है एक, न कोई बड़ा ना छोटा।
मछली अपनी जाती की, छोटी मछली खाए।
इसीलिए असहाय वह, मारी काटी जाए। ।
मारी काटी जाए, वधिक भय तरस ना लाता।
मधुमक्खी का झुंड, देख भय कौन न खाता। ।
'पंकज' सदा सशक्त, एकता अगर न विचली।
मधुमक्खी बन रहे, कभी मत बनिए मछली। ।
- राम औतार 'पंकज'
तन, धन अथवा जाती से, श्रेष्ठ न हो इंसान। ।
श्रेष्ठ न हो इंसान, सफेदा पादप चिकना।
उपयोगी पर नहीं, आम-शीशम तरु जितना। ।
"पंकज" वर्नाधर, श्रेष्ठता हेतु न धरिये।
मेधावी व्यक्तित्व, चयन सदगुड से करिए।।
निबल हुआ है निबल ही, सबल, सबल संपन्न।
निबल खरीदे, खाए क्या, जो अति दीन विपन्न। ।
जो अति दीन विपन्न, न रोटी भी खा पाटा।
निबल करे श्रम घोर, सबल तो mauj उडाता ।
'पंकज' जग में न्याय , भला क्यों विफल हुआ है।
सबल हो रहा सबल, निबल नित निबल हुआ है। ।
समता भारत वर्ष में, कहाँ सफल सर्वत्र।
दलित-घ्रिडित को जन अभी, बना न पाए मित्र। ।
बना न पाये मित्र, सामने बैठें कैसे।
युग से खटते रहे, दाम बिन चाकर जैसे। ।
'पंकज' जब तक भाव, न सामंती का हटता ।
तब तक कोसों दूर, यहाँ समरसता समता। ।
ऐसी है असमानता, व्याप्त गली घर गाँव।
कोई चलता कार पर, कोई नंगे पाँव। ।
कोई नंगे पाँव, बदन पर वस्त्र न जुटता।
भूखों मरता एक, एक नोटों पर चलता। ।
'पंकज' होती ग्लानी, कि यह समरसता कैसी।
नहीं सोचते लोग, गिरी मानवता ऐसी। ।
छोटा-बड़ा न आदमी, सब हैं एक समान।
धन-दौलत, रंग-रूप का, करो नहीं अभिमान। ।
करो नहीं अभिमान, व्यर्थ का भेद ना करिए।
मिलो सभी से सदा, प्यार सबमें नित भरिये। ।
कह 'पंकज' है जाती, धर्मगत चिंतन खोटा।
हर मानव है एक, न कोई बड़ा ना छोटा।
मछली अपनी जाती की, छोटी मछली खाए।
इसीलिए असहाय वह, मारी काटी जाए। ।
मारी काटी जाए, वधिक भय तरस ना लाता।
मधुमक्खी का झुंड, देख भय कौन न खाता। ।
'पंकज' सदा सशक्त, एकता अगर न विचली।
मधुमक्खी बन रहे, कभी मत बनिए मछली। ।
- राम औतार 'पंकज'
Dr. Tukaram Verma
गौर से देखिये हाल बेहाल हैं।
भूक से हो रहे लोक कंकाल हैं।
जाती के नाम पर, धर्म के नाम पर
रौंदने पर उतारू बड़े लाल हैं।
लोग हारे-थके बोझ से जो दबे
दंशने को उन्हें अर्थ के व्याल हैं।
लूट-उत्पात चोरी ठगी के लिए
शोषकों ने बिछाए कई जाल हैं।
स्वार्थ की गोद में नीतियां खेलतीं
न्यायविद के नहीं न्यायप्रिय ख्याल हैं।
आज के दौर की त्रासदी है यही
आचरण हीन इंसान खुशहाल है ।
रास्ता सेवक लगे लूटने राष्ट्र को
इसलिए गाँव के गाँव कंगाल हैं।
लोकशाही करे तो करे क्या 'तुका'
आप सबने चुने धूर्त वाचाल हैं।
- डॉ तुकाराम वर्मा
अपने आप हरें निज मन का, अन्धकार अभिमान।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
सदा गन्दगी करने वाले,
पर स्वत्वों को हरने वाले,
परम पूज्य समझे जाते हैं -
अपने घर को भरने वाले।
समय कह रहा दफ्न करायें, सदियों का अज्ञान ।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
जिनकी जीवन शैली मैली,
जिनकी कथनी कलुष विषैली,
जिनके छल-बल के प्रभाव से-
चारों ओर विषमता फैली।
उन सबके रुकवाने ही हैं, स्वार्थ परक अभियान!
करें हम दलितों का सम्मान !!
करें हम दलितों का सम्मान!!
जिसको विदित प्रकृति कलरव है,
जिसको जीवन का अनुभव है-
वह कबीर बनकर कह सकता-
मानव तो केवल मानव है।
जनहित के चिंतन का वंदन, करते हैं विद्वान !
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम अलितों का सम्मान!!
गुज़र-बसर का ताना-बाना,
पास ना जिनके ठौर-ठिकाना
ऐसे निदलों को मुश्किल है -
धन पशुओं से लाज बचाना।
नव समाज की सरंचना के, रचें नए प्रतिमान।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
- डॉ तुकाराम वर्मा
भूक से हो रहे लोक कंकाल हैं।
जाती के नाम पर, धर्म के नाम पर
रौंदने पर उतारू बड़े लाल हैं।
लोग हारे-थके बोझ से जो दबे
दंशने को उन्हें अर्थ के व्याल हैं।
लूट-उत्पात चोरी ठगी के लिए
शोषकों ने बिछाए कई जाल हैं।
स्वार्थ की गोद में नीतियां खेलतीं
न्यायविद के नहीं न्यायप्रिय ख्याल हैं।
आज के दौर की त्रासदी है यही
आचरण हीन इंसान खुशहाल है ।
रास्ता सेवक लगे लूटने राष्ट्र को
इसलिए गाँव के गाँव कंगाल हैं।
लोकशाही करे तो करे क्या 'तुका'
आप सबने चुने धूर्त वाचाल हैं।
- डॉ तुकाराम वर्मा
अपने आप हरें निज मन का, अन्धकार अभिमान।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
सदा गन्दगी करने वाले,
पर स्वत्वों को हरने वाले,
परम पूज्य समझे जाते हैं -
अपने घर को भरने वाले।
समय कह रहा दफ्न करायें, सदियों का अज्ञान ।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
जिनकी जीवन शैली मैली,
जिनकी कथनी कलुष विषैली,
जिनके छल-बल के प्रभाव से-
चारों ओर विषमता फैली।
उन सबके रुकवाने ही हैं, स्वार्थ परक अभियान!
करें हम दलितों का सम्मान !!
करें हम दलितों का सम्मान!!
जिसको विदित प्रकृति कलरव है,
जिसको जीवन का अनुभव है-
वह कबीर बनकर कह सकता-
मानव तो केवल मानव है।
जनहित के चिंतन का वंदन, करते हैं विद्वान !
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम अलितों का सम्मान!!
गुज़र-बसर का ताना-बाना,
पास ना जिनके ठौर-ठिकाना
ऐसे निदलों को मुश्किल है -
धन पशुओं से लाज बचाना।
नव समाज की सरंचना के, रचें नए प्रतिमान।
करें हम दलितों का सम्मान!!
करें हम दलितों का सम्मान!!
- डॉ तुकाराम वर्मा
Poetry Reading
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience.
As I continued to read...
There came a moment - who knows why -
when a couple of them wrinkled their noses
And astonished, I said to the poet in me
"What's the reason for this?"
And he answered me,
"It was to be expected...
All that's happened is
the settled sludge has been stirred
and the water's grown cloudy."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
a couple got up and left
But the eyelids of the others
seemed ready to shed rain
And, distressed, I said to the poet in me,
"Why is this happening?"
And he answered me,
"It's only natural
All that's happened is
the moisture pent up till today
is looking to break out."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I wa reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
I saw embers flaring in the pupils of their eyes
And, frightened, I said to the poet in me,
"What's this that's happening?"
And he answered me,
"It was this I was waiting for
All that's happening is
the dynamite fuses, nearly burnt out,
are trying to falre up again."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
I saw a dazzling brilliance in their eyes
And, curious, I said to the poet in me,
"Why is this happening?"
And he answered me,
"It's inevitable.
All tha's happening is
they're marching in battle
on this fearful darkness."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
- Damodar More
(Translated from Marathi by Priya Adarkar)
Desmond Tutu on Dalits
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience.
As I continued to read...
There came a moment - who knows why -
when a couple of them wrinkled their noses
And astonished, I said to the poet in me
"What's the reason for this?"
And he answered me,
"It was to be expected...
All that's happened is
the settled sludge has been stirred
and the water's grown cloudy."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
a couple got up and left
But the eyelids of the others
seemed ready to shed rain
And, distressed, I said to the poet in me,
"Why is this happening?"
And he answered me,
"It's only natural
All that's happened is
the moisture pent up till today
is looking to break out."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I wa reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
I saw embers flaring in the pupils of their eyes
And, frightened, I said to the poet in me,
"What's this that's happening?"
And he answered me,
"It was this I was waiting for
All that's happening is
the dynamite fuses, nearly burnt out,
are trying to falre up again."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
As I continued to read...
There came a moment when
I saw a dazzling brilliance in their eyes
And, curious, I said to the poet in me,
"Why is this happening?"
And he answered me,
"It's inevitable.
All tha's happening is
they're marching in battle
on this fearful darkness."
As I was reading out a poem
the audience was listening as I read
And as the audience was listening to me
I was reading the faces of the audience
- Damodar More
(Translated from Marathi by Priya Adarkar)
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